झुका दूं शीश अपना ये बिना सोचे जिन चरणों में ,
ऐसे पावन चरण मेरे पिता के कहलाते हैं .
बेटे-बेटियों में फर्क जो करते यहाँ ,
ऐसे कम अक्लों को वे आईना दिखलाते हैं .
शिक्षा दिलाई हमें बढाया साथ दे आगे ,
मुसीबतों से हमें लड़ना सिखलाते हैं .
मिथ्या अभिमान से दूर रखकर हमें ,
सादगी सभ्यता का पाठ वे पढ़ाते हैं .
कर्मवीरों की महत्ता जग में है चहुँ ओर,
सही काम करने में वे आगे बढ़ाते हैं .
जैसे पिता मिले मुझे ऐसे सभी को मिलें ,
अनायास दिल से ये शब्द निकल आते हैं .
शालिनी कौशिक
3 टिप्पणियां:
पिता एक वृक्ष की तरह होते हैं शालिनी जी! सार्थक कविता..बधाई!
सुन्दर भावों से भरी रचना !!
सुंदर रचना।
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