औरतों को मैंने नहीं देखा
चलते हुए कभी
उनको अपने पैरों पर
उनको अपने पैरों पर
चलती हैं वो सदा
बैसाखियों के सहारे ही ...
चलती हैं वे बचपन में
पिता का सहारा लिए
भाई का सहारा लिए ...
बिन सहारे
भयभीत होते चलती ...
यह बैसाखियाँ गवां देता है
उनका आत्मविश्वास
स्वाभिमान
और निज पहचान भी ..
फिर कहाँ चल पाती बिन सहारे वे
तभी तो डोली में बैठा कर
विदा की जाती है
उतरते ही थमा दी जाती है
नयी बैसाखियाँ ...
यह नयी बैसाखियाँ लिए
चलते हुए
घुलती रहती है
ग़लती रहती है , वे ...!
कभी गिरती तो
कभी लड़खड़ाती
भरभरा के गिरने को
होती है , तभी
उग आती है एक और
बैसाखी ...
चलना तो पड़ता ही है
लेकिन ...!
चलना तो पड़ता ही है
लेकिन ...!
बिन बैसाखियों के कहाँ
चल पाती औरतें ...!
उपासना सियाग .
उपासना सियाग .
15 टिप्पणियां:
जबरदस्त कटाक्ष व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
BHARTIY NARI
PLEASE VISIT .
यह बैसाखियाँ गवां देता है
उनका आत्मविश्वास
स्वाभिमान
और निज पहचान भी ..
sahi kaha upasna ji ye baisakhiyan hi hain aur ye aatmvishvas se diga deti hain .sundar bhavabhivyakti.
फिर कहाँ चल पाती बिन सहारे वे
तभी तो डोली में बैठा कर
विदा की जाती है
उतरते ही थमा दी जाती है
नयी बैसाखियाँ ... कटाक्ष व् सार्थक प्रस्तुति ..
सच्ची बात ..
शालिनी जी उपासना सियाग की कविता भैजी धन्यवाद। कविता साहित्य के नाते उत्कृष्ट है कोई शक नहीं पर महिलाओं के सामाजिक अस्मिता, सम्मान और आत्मविश्वास को कम करती है, ठेंस पहुंचाती है। अपेक्षा यह है चाहे कविता से, चाहे साहित्यिक वर्णन से, चाहे वास्तविकता से नारी जगत् ठेंस खाएं पर बार-बार नहीं। बैसाखी को कभी तो त्यागे। अपने दमखम पर विश्वास और सम्मान से जिए। आप मेरे ब्लॉग पर इस पर आलेख पढ सकती है- 'हद हो गई'और 'एक लडकी एक लडका।' वैसे दोनों लघु आलेख 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित हो गए हैं। उसकी लिंक ब्लॉग पर है। आलेख अगर पसंद आए तो आप लिखे और अपने पाठकों के लिए 'वुमन अबाऊट मॅन' पर जोड सकती है।
ब्लॉग drvtshinde.blogspot.com
चल तो सकती हैं
आज की औरतें
बिना बैसाखियों के
पर समाज ही है
जो हर पल
थमा देता है
कोई न कोई
बैसाखी , और
कर देता है मजबूर
उन्हें थामने के लिए
क्यों कि इसीसे
तुष्ट होता है
पुरुष दंभ ।
अच्छी प्रस्तुति
समाज की बनाई इन बैसाखियों से निजात पाना मुश्किल तो है ... पर जिस दिन ऐसा होगा .. समाज बेहतरीन हो जाएगा ...
bahut khoob kataksh ..
बहु खूब . सुन्दर
कड़वा सच है......
मगर इस बैसाखी को छोड़ना ही होगा....
अनु
बहुत उम्दा रचना
koshish tho karti hain chalne ki par.....fir bhi koi na koi baishakhi tham hi leti hai....bachpan say adat jo aisi di gayi hai
लेकिन एक सच्चाई है ये ........उसी बैसाखी को .कुछ लोग इसे शक्ति और कुछ कमजोरी बना सकते हैं .........अच्छी रचना है
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