शनिवार, 6 अप्रैल 2013

बिन बैसाखियों के कहाँ चल पाती औरतें ...!


औरतों को मैंने नहीं देखा
चलते हुए कभी
उनको अपने पैरों पर 
चलती हैं वो सदा 
बैसाखियों के सहारे ही ...

चलती हैं वे बचपन में 
पिता का सहारा लिए 
भाई का सहारा लिए ...

बिन सहारे 
भयभीत होते चलती ...

यह बैसाखियाँ गवां देता है 
उनका आत्मविश्वास 
स्वाभिमान 
और निज पहचान भी ..

फिर कहाँ चल पाती बिन सहारे वे 
तभी तो डोली में बैठा कर 
विदा की जाती है 
उतरते ही थमा दी जाती है 
नयी बैसाखियाँ ...

यह नयी बैसाखियाँ  लिए 
चलते हुए 
घुलती रहती है 
ग़लती रहती है , वे ...!

कभी गिरती तो
 कभी लड़खड़ाती 
भरभरा के गिरने को 
होती है , तभी 
उग आती है एक और
 बैसाखी ...

चलना तो पड़ता ही  है
लेकिन ...!
बिन बैसाखियों के कहाँ 
चल पाती औरतें ...!

उपासना सियाग .



15 टिप्‍पणियां:

Shikha Kaushik ने कहा…

जबरदस्त कटाक्ष व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

BHARTIY NARI
PLEASE VISIT .

Shalini kaushik ने कहा…

यह बैसाखियाँ गवां देता है
उनका आत्मविश्वास
स्वाभिमान
और निज पहचान भी ..
sahi kaha upasna ji ye baisakhiyan hi hain aur ye aatmvishvas se diga deti hain .sundar bhavabhivyakti.

Unknown ने कहा…

फिर कहाँ चल पाती बिन सहारे वे
तभी तो डोली में बैठा कर
विदा की जाती है
उतरते ही थमा दी जाती है
नयी बैसाखियाँ ... कटाक्ष व् सार्थक प्रस्तुति ..

संगीता पुरी ने कहा…

सच्‍ची बात ..

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे ने कहा…

शालिनी जी उपासना सियाग की कविता भैजी धन्यवाद। कविता साहित्य के नाते उत्कृष्ट है कोई शक नहीं पर महिलाओं के सामाजिक अस्मिता, सम्मान और आत्मविश्वास को कम करती है, ठेंस पहुंचाती है। अपेक्षा यह है चाहे कविता से, चाहे साहित्यिक वर्णन से, चाहे वास्तविकता से नारी जगत् ठेंस खाएं पर बार-बार नहीं। बैसाखी को कभी तो त्यागे। अपने दमखम पर विश्वास और सम्मान से जिए। आप मेरे ब्लॉग पर इस पर आलेख पढ सकती है- 'हद हो गई'और 'एक लडकी एक लडका।' वैसे दोनों लघु आलेख 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित हो गए हैं। उसकी लिंक ब्लॉग पर है। आलेख अगर पसंद आए तो आप लिखे और अपने पाठकों के लिए 'वुमन अबाऊट मॅन' पर जोड सकती है।
ब्लॉग drvtshinde.blogspot.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चल तो सकती हैं
आज की औरतें
बिना बैसाखियों के
पर समाज ही है
जो हर पल
थमा देता है
कोई न कोई
बैसाखी , और
कर देता है मजबूर
उन्हें थामने के लिए
क्यों कि इसीसे
तुष्ट होता है
पुरुष दंभ ।

अच्छी प्रस्तुति

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समाज की बनाई इन बैसाखियों से निजात पाना मुश्किल तो है ... पर जिस दिन ऐसा होगा .. समाज बेहतरीन हो जाएगा ...

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…
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kavita verma ने कहा…

bahut khoob kataksh ..

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहु खूब . सुन्दर

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

कड़वा सच है......
मगर इस बैसाखी को छोड़ना ही होगा....

अनु

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Unknown ने कहा…

बहुत उम्दा रचना

Rewa Tibrewal ने कहा…

koshish tho karti hain chalne ki par.....fir bhi koi na koi baishakhi tham hi leti hai....bachpan say adat jo aisi di gayi hai

अरुणा ने कहा…

लेकिन एक सच्चाई है ये ........उसी बैसाखी को .कुछ लोग इसे शक्ति और कुछ कमजोरी बना सकते हैं .........अच्छी रचना है