बुधवार, 10 अप्रैल 2013

पुरुष स्वयं नारी को इन बैसाखियों को छोड़ने को प्रेरित करता है-VIJAY SHINDE

ब्लॉगर VIJAY SHINDE ने कहा…   
  शालिनी जी उपासना सियाग की कविता भैजी धन्यवाद। कविता साहित्य के नाते उत्कृष्ट है कोई शक नहीं पर महिलाओं के सामाजिक अस्मिता, सम्मान और आत्मविश्वास को कम करती है, ठेंस पहुंचाती है। अपेक्षा यह है चाहे कविता से, चाहे साहित्यिक वर्णन से, चाहे वास्तविकता से नारी जगत् ठेंस खाएं पर बार-बार नहीं। बैसाखी को कभी तो त्यागे। अपने दमखम पर विश्वास और सम्मान से जिए। आप मेरे ब्लॉग पर इस पर आलेख पढ सकती है- 'हद हो गई'और 'एक लडकी एक लडका।' वैसे दोनों लघु आलेख 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित हो गए हैं। उसकी लिंक ब्लॉग पर है। आलेख अगर पसंद आए तो आप लिखे और अपने पाठकों के लिए 'वुमन अबाऊट मॅन' पर जोड सकती है।     ब्लॉग drvtshinde.blogspot.com
ये ब्लॉग नारी के पुरुष के बारे में क्या विचार हैं इस लिए बनाया है किन्तु विजय जी के इस आग्रह ने की उपासना जी की ये प्रस्तुति सही है किन्तु नारी को इन बैसाखियों को छोड़ देना चाहिए और इसके लिए उन्होंने मैत्रयी पुष्पा जी की पुस्तक के बारे में जो पुस्तक समीक्षा  रचनाकार  पर  प्रकाशित  की उसे यहाँ प्रकाशित  किया जा रहा है ऐसे में जब पुरुष  स्वयं नारी  को इन  बैसाखियों  को छोड़ने को प्रेरित करता है तो नारी  को भी  तो विचार करना होगा .तो प्रस्तुत  है विजय जी की ये प्रस्तुति .-
31 मार्च 2013
पुस्तक समीक्षा - ‘गुड़िया' को देखते हिंदी साहित्‍य का भविष्‍य

‘गुड़िया' को देखते हिंदी साहित्‍य का भविष्‍य

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डॉ. विजय शिंदे

परिवर्तन जीवंतता का प्रतीक है। साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में परिवर्तन की अपेक्षा से सहित विचारों का लेखन लेखक करता है पर कथन करने की उसकी तकनीक निराली होती है, अद्‌भुत होती है। भूतकाल और वर्तमान को देखते हुए सत्‍य घटनाओं का रेखांकन साहित्‍य में किया जाता है और उसमें मनुष्‍य जीवन की पेचिदगियां, पीडा, संघर्ष, शोषण का वास्‍तव वर्णन होता है। उन्‍हीं बातों का वर्णन करते लेखक अपनी रचनाओं में भविष्‍य के ऐसे सूत्र जोड़ देता है जो अवाक करनेवाले होते हैं। सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना ने ‘सौंदर्य बोध' कविता में लिखा,

‘‘बिना आकर्षण के दुकानें टूट जाती है

शायद कल उनकी समाधियां नहीं बनेंगी

जो मरने के पूर्व

फूल और कफन का प्रबंध नहीं करेंगे।

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ओछी नहीं है दुनिया

महज उसका ‘सौंदर्य बोध' बढ़ गया है।''

कवि के दृष्‍टिकोण से सौंदर्य बोध बढ़ना कोई आम बात नहीं यह संकेत है बाजारीकरण की तरफ। वर्तमान देखते दांवे से कह सकते है भविष्‍य में बाजारीकरण से प्रभावित मनुष्‍य की दयनीय स्‍थिति का साहित्‍य में प्रलय आएगा। बाजार के दबाव, समूह, उनके प्रत्‍यक्ष - अप्रत्‍यक्ष मारक तत्‍व, आक्रमण, निर्मयता और इंसान की एक लंबी ‘रेस' दुनिया में रहेगी। इस रेस में मनुष्‍य की मानवीयता आहत होगी, वह पीड़ित होगा और उसकी कराह साहित्‍य के भीतर उतरेगी। बच्‍चे पढ़ रहे हैं। विदशों में जा रहे हैं। वह गांधी- आंबेडकर- नेहरु युग गुजर चुका जो विदेशों में पढ़े और अपने देश वापस आकर अपने जाति, धर्म और देश के लिए क्रांति की। अब भारतीय युवक पढ़-लिखकर नौकरियां विदेशों में ढूंढकर वहां जाकर बसता है, एक शादी नहीं ‘शादियां' भी वहीं रचा रहा है और उससे नवीन समस्‍याओं की निर्मिति हो रही है भविष्‍य में साहित्‍य के भीतर उतरेगी ममता कालिया का ‘दौड' उपन्‍यास उसी को वर्णित करता है। प्रभा खेतान का ‘अन्‍या से अन्‍यना' आत्‍मकथन सच्‍चाई और विद्रोह का चलता पुरजा। सारी परंपराओं को तोड़कर सफल व्‍यावसायिक, मनमुताबिक एक डॉक्‍टर पुरुष के साथ रहना जो विवाहित है। समाज क्‍या बोल रहा है, परिवार क्‍या कहेगा कोई चिंता नहीं और उस पुरुष के साथ शादी भी नहीं। कितना साहसीक बर्ताव भविष्‍य में ऐसे साहित्‍य की भरमार आएगी कोई आश्‍चर्य नहीं होगा।

साहित्‍य वह किसी भी भाषा का हो एक रचना के भीतर से दूसरी रचना को जन्‍म देता है। भारतीय और हिंदी जगत्‌ की अपेक्षा अंग्रेजी साहित्‍य में वर्णित विषय एवं ‘बोल्‍डनेस' अधिक है, भविष्‍य में हिंदी साहित्‍य के भीतर आएगा ही आएगा। किसी के रोके रुकेगा नहीं। पुरानी फिल्‍मी दुनिया एवं साहित्‍य में हाथों का गालों का होठों से स्‍पर्श कर चुमना आश्‍चर्य माना जाता था पर आज कहां-कहां चुमेंगे इसका भरौसा नहीं और उस चुमाचाटी में पवित्रता नामशेष। अर्थात्‌ यह सब परत-दर-परत परिवर्तन हुआ, अचानक नहीं। साहित्‍य भी ऐसे ही, परत-दर-परत, ‘गुड़िया भीतर गुड़िया'।

मैत्रेयी पुष्‍पा ने आत्‍मकथन लिखा ‘कस्‍तूरी कुंडल बसै' मां के साथ जुड़कर अपना और नारी जाति का लेखा-जोखा। कस्‍तूरी मां। उस मां से जन्‍मी अकेली बेटी पुष्‍पा। अपने उपनाम को नकार कर साहित्‍यिक नाम धारण किया मैत्रेयी पुष्‍पा। विद्रोह रूढि- परंपराओं से, पुरुष प्रधान समाज का नकार, सांस्‍कृतिक बंधनों का नकार, जाति-पाति का नकार। कस्‍तूरी के पेट से जन्‍मी एक गुड़िया पुष्‍पा, पुष्‍पा के पेट से जन्‍मी तीन गुड़ियां- नम्रता, मोहिता, सुजाता। आज जहां गर्भ मेें पल रहे बच्‍चे के लिंग की जांच, पड़ताल कर उसके स्‍त्री लिंगी होते ही मारने वाले सामाजिक मानसिकता के विरोध में लड़ती इन तीन पीढ़ियों की गुड़ियों कों सादर नमन। जबरदस्‍त संघर्ष की गाथा, घुटन और विद्रोह। ऐसा नहीं की मैत्रेयी ने हाथों में बंदुके थामकर गोलियां दागी हो। नारी जगत, की पीड़ाओं का बखान करते पुरुष प्रधान संस्‍कृति को भविष्‍य के खतरों से आगाह करती है। संपूर्ण रचना में ईमानादार मांग,े कि हम भी जीवंत है, हम भी मनुष्‍य है। आजादी हमें भी चाहिए और ये हमारा हक है। आज अगर हमारा मौन आग्रह आपने सुना नहीं तो कल बंदुके भी उठ सकती है। जैसे अदिवासियों के अधिकारों को नकारा वे नक्‍सलाईट हो गए। खैर मेरा उद्‌देश्‍य यहां पर ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' को देखते भविष्‍य के कौन से संकेत मिलते हैं जो हिंदी साहित्‍य का निर्देशन कर रहे हैं। ‘‘यह है, मैत्रेयी पुष्‍पा की आत्‍मकथा का दूसरा भाग। ‘कस्‍तूरी कुंडल बसै' के बाद ‘गुड़िया भीतर गुड़िया।' अगर बाजार की भाषा में कहें तो मैत्रेयी का एक और धमाका।'' ;प्‍लैपद्ध जो पाठक को, भारतीय व्‍यक्‍ति को झंकझोर देता है, चकित करता है। और भविष्‍य में ऐसे धमाकें एक नहीं कई हो सकते हैं, सभी महिला लेखिकाओं से। मैत्रेयी ने इस रचना में नारी होने के नाते सारी सीमाओं को लांघकर खतरों को उठाया और समाज का कान पकड़कर बताया कि ‘यूं अन्‍याय न कर मोरे राजा, ऐसी चोट पहूंचेगी उठ न पावै' लेखिका ने इस किताब में बडी ईमानदारी के साथ आत्‍मकथन को खोला है, जो मन में था वहीं लिखा। घटनाएं तो सच है ही परंतु उन घटनाओं के दौरान मन के भीतर क्‍या हलचलें शुरु थी उसका भी ईमानदारी से लेखन, नई बात है। यहीं हलचलें भविष्‍य में सहित्‍य का, समाज का सच बनते देखी जा सकती है। ‘‘घर-परिवार के बीच मैत्रेयी ने वह सारा लेखन किया है जिसे साहित्‍य में बोल्‍ड, साहसिक और आपत्‍तिजनक, न जाने क्‍या-क्‍या कहा जाता है और हिंदी की बदनाम मगर अनुपेक्षणीय लेखिका के रूप में स्‍थापित है।'' (प्‍लैप) पुष्‍पा जी परिस्‍थिति और मां से सीख चुकी की बदनामियों को नजरअंदाज करें। चाहे वह परिवार द्वारा लगाए गए लांछन हो या समाज द्‌वारा। अब वह दौर आ चुका है शहरों एवं महानगरों में बदनामी कोई विशेष बात नहीं। अब स्‍थितियां ऐसे है मानो ‘सौ चुहे खाकर बिल्‍ली चली हज'। पुरुषों ने तो अपनी हदें कब की लांघी है उसके देखा देखी नारियां भी लांघ रही है और कह रही है-‘आपने क्‍यों दूसरी शादी की? रखैल रखी? दूसरी औरतों के पीछे भाग रहे हो? हम भी दूसरी शादी करेंगे, पुरुष रखेंगे, दूसरे पुरुषों के साथ समय गुजारेंगे-मानसिक, शारीरिक, उन्‍हें उगलियों पर नचाएंगे। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' में एक लड़की का जिक्र है जो अपने टयुशन मास्‍टर के साथ अफेअर कर चुकी है कई स्‍तरों का और मकान मालकिन प्रतिक्रिया दे रही है ‘यह भाग न जाए, यही चिंता है। इश्‍क विश्‍क तो चलता चलाता रहता है। ;पृ.41द्ध संकेत है भविष्‍य का लडकियों द्वारा शारीरिक आजादी प्राप्‍ति का और इसको पास-पडोसिनों स्‍वीकार करेंगी मौज-मस्‍ती करें पर शादी ना करें। लड़की और पौढ नारी की आत्‍मस्‍वीकृति केवल संकेत मात्र भविष्‍य में साहित्‍यिक दुनिया में उफान आएगा। भारतीय मूल्‍यों का हनन है पर रोके कैसे, मुश्‍किल है!

मैत्रेयी के मन में विवाह संस्‍था के प्रति विरक्‍ति निर्माण हो चुकी है। बंधन, पाबंदी, मॅुंह पर पट्‌टी, ऐसा न करो, यहां बैठो मत, बाहर निकलो मत, रसोयी घर ही तुम्‍हारी दुनिया, दहलिज, बच्‍चे और अंत में पति-पुरुष। क्‍या यही महिलाओं की दुनिया? प्रश्‍नचिह्‌न मैत्रेयी खड़ी कर रही है, ना! ये तो नहीं हमारी दुनिया। हमारी दुनिया अपने हाथों से गढे़गी एक नारी का आक्रोश पीढ़ी-दर-पीढ़ी उतर रहा है। मैत्रेयी कहती है, ‘‘मैं धर्म के खिलाफ थी, न नैतिकता विरूध्‍द। मैं तो सदियों से चली आ रही तथाकथित सामाजिक व्‍यवस्‍था से खुद को मुक्‍त कर रही थी।'' (पृ. 7) लेखिका का यह मौन संघर्ष है मुक्‍ति का, पुरुष धर्म के विरूध्‍द का जो संपूर्ण नारी जाति का बनता है। पर भविष्‍य संकेत दे रहा है साहित्‍य में कल ऐसी रचनाओं की भरमार होगी जहां पीड़ित होकर नारियां पुरुषों को मौनता तोड़कर फौश गालियां देंगी जिसे सुनने की मानसिकता आज से बनानी पडेगी। नारी बंधनों से मुक्‍त होने के लिए तड़प रही है, उन्‍हें बंधन रास नहीं आते और यहां पर उनका विवाह संस्‍था पर से विश्‍वास उठ जाता है। मैत्रेयी एकांत में कई बार सोचती है शादी करके गलती की? प्रभा खेतान का बिना विवाह पुरुष के साथ रहना, मन चाहा सुख प्राप्‍त करना भी तो यही दिखाता है (अन्‍या से अन्‍यना), समाज चाहे तो कुछ भी कहे ‘मैं तो अपने मन की रानी रे' का स्‍वर। अब यह स्‍वर भविष्‍य में ताकदवर बनेगा साहित्‍य में उतरेगा। मैत्रेयी भी पति के साथ बहस करते हुए पुरुष सत्‍ता को नकार रही है, ‘‘यदि कोई पति अपनी पत्‍नी की कोमल भावनाओं को कुचलकर खत्‍म करता है तो पत्‍नी को पतिव्रत के नियमों का उल्‍लंघन हर हालत में करना होगा।'' (पृ.15) विद्रोह लेखिका का फिलहाल वर्तमान स्‍थिति में, पवित्र भाषा में, पर कल भविष्‍य में, भाषा जरुर बदलेगी ‘अबे कमिने....... मैं तेरे पांव की जुती थोड़ी ही हूंं। बकते जा रहे हो। मेरे मन पर जो आघात तुम कर रहे हो उससे भी खतरनाक चोटें दे दुंगी।' विद्रोह और विद्रोह से पनपता ‘बदला' और बदले की भावना साहित्‍य के केंद्र में भविष्‍य का संकेत है। रोके स्‍त्री अत्‍याचारों को, स्‍त्री भ्रुण हत्‍याओं को। पुरुष सत्‍ता का नकार जहर बन न जाए, आज सोचना जरुरी है। हो सकता कल ‘पुरुष और स्‍त्री,' दो दलों में सारा सामाजिक ढांचा बंट जाए और इनकी लड़ाइयां साहित्‍य में वर्णित हो। विदेशों में ‘सेक्‍स' आजादी है धीरे-धीरे भारतीय समाज में उतर रही है। सेक्‍स के लिए पुरुष तो आजादी ले चुका है पर नारियां भी मंशा रख रही है। पति के साथ रहनेवाली पुष्‍पा जी मन पर थोड़े ही रोक लगा सकती चाहे शरीर को बंधनों में बांधे। ‘‘लगता यह भी, कोई हमारी जिंदगी में क्‍यों नहीं आता? पतिव्रत ढोते-ढोते कंधे झुके जा रहे हैं। अच्‍छी पत्‍नी होकर उकता रहे हैैं।...... जब ना तब मन का मौसम बदलने लगता है। मेरे कदम मेरी नजरों के साथ चलने लगते हैं। व्‍यवस्‍था गड़बड़ाने लगती है। समर्पन डगमगा जाता है।'' (पृ. 70-71) मैत्रेयी की फिलहाल उम्र 56 बरस है, मैं उन्‍हें उमर ढल चुकी कहूं तो गालियां मिलेगी। पर विज्ञान और प्रकृति को आधार माने तो यहां पर महिलाएं शरीर सुख से निवृत्‍त हा चुकी होती है। समर्पित जीवन जीया। उनको केवल लगता था, मन में उमडन-घुमडन चल रही थी। भविष्‍य की प्रौढ महिलाएं इसी मानसिक हलचल को सच बनाने की संभावना है और इससे पीड़ित पुरुष एवं नारियों का चित्रण नव-नवीन घटनाओं के साथ साहित्‍य में उतरेगा।

संवेदनशील और चिंता निर्माण करनेवाला विषय है बेटा बेटी भेदा-भेद। स्‍त्री भ्रुण हत्‍या, पुरुष-स्‍त्री प्रमाण का असंतुलन सामाजिक ढांचे को तहस-नहस करेगा। अब पैसों को लेकर लड़ाइयां होती कल लड़कियों को लेकर होगी। मजाक-मजाक में कहते हैं रामायन-महाभारत सीता-द्रौपद्री के लिए हुआ। युध्‍द का कारण स्‍त्री। पर भविष्‍य में पुरुषों की लड़ाइयां स्‍त्री के लिए किस कदर होगी कल्‍पना भी नहीं कर सकते। स्‍त्रियों का प्रमाण इस तरह घटता गया तो भविष्‍य खतरों से भरेगा और वे साहित्‍य में उतरते रहेंगे। ‘‘एक बेटा जरुर हो का रिवाज परिवार नियोजन की रीढ दबाए रहता है। सभ्‍य समाज में फैमिली प्‍लानिंग का रूप है- दो बेटे एक बेटी। एक बेटा एक बेटी। दो बेटे हों फर्क नहीं पड़ता मगर जैसे ही लड़कियों की संख्‍या दो हो जाती है, लड़के की पुकार तेज होती है।'' (पृ.95) यह दृष्‍टिकोण देश को कौनसी कगार पर लेकर जाएगा बताया नहीं जा सकता और वह कगार, साहित्‍य स्रोत जरुर बनेगी।

पाकिस्‍तान में जितने मुसलमान है उतने ही भारत के भीतर अर्थात्‌ भारत में एक और मुस्‍लिम राष्‍ट्र जी रहा है, बंधुत्‍व के साथ पर पुष्‍पा जी ने भारत-पाकिस्‍तान युद्‌ध को लेकर थोड़ा-सा वर्णन किया है जहां पर भारत के भीतर रह रहे मुसलमानों को पाकिस्‍तानी जासूस की नजरों से देखा गया था। और मुसलमान अपने घरों के भीतर सहमे-सिमटे जा रहे थे असुरक्षित महसूस कर रहे थे। पाकिस्‍तान टूटने की खबरें भी आ रही थी। कुछ पाकिस्‍तानी अपने रिश्‍तेदारों के साथ भारत में भी थे जो मैत्रेयी के पड़ोसी घर में थे। खैर बात यह है कि मैत्रेयी का उनसे दोस्‍ताना रिश्‍ता हार्दिक था। (पृ. 77) प्रश्‍न यह उठता है कि कल, भविष्‍य में भारत-पाकिस्‍तान एक अच्‍छे दोस्‍त हो सकते हैं? भारत-पाकिस्‍तान के भीतर रोटी-बेटी का व्‍यवहार हो जाएगा? व्‍यापक रूप में शादियां होगी? अगर ऐसा हो तो आज भारत में कभी-कभार होनेवाले सांप्रदायिक दंगे पूर्ण मिट जाएंगे और भारत का सतरंगी पंखोंवाला सपना साकार होगा। पर यह केवल भविष्‍य की कल्‍पना है जो मैत्रेयी पुष्‍पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' के माध्‍यम से मन में आ जाती है। अगर दोनों संप्रदायों के रिश्‍ते मृदु और हार्दिक होते गए तो साहित्‍य में वहीं प्रतिबिंब आएगा और खिंचते गए, दरारे बढ़ती गई तो भयानक, दर्दनाक दिनों का वर्णन आएगा। बस मैत्रेयी पुष्‍पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' के माध्‍यम से भविष्‍यकालीन साहित्‍य के परिदृश्‍य को आंकते हुए साहित्‍य और देश के भविष्‍य का शुभ चाहते हैं।

आधार ग्रंथ

गुड़िया भीतर गुड़िया (आत्‍मकथन) -मैत्रेयी पुष्‍पा, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. पहला संस्‍करण -2008, पृ.352, मूल्‍य - 395

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डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद
इसे प्रकाशित किया Ravishankar Shrivastava ने, समय: 14:04
विषय: समीक्षा

आगे पढ़ें: रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - ‘गुड़िया' को देखते हिंदी साहित्‍य का भविष्‍य http://www.rachanakar.org/2013/03/blog-post_3524.html#ixzz2Q69Jdatl

4 टिप्‍पणियां:

Shikha Kaushik ने कहा…

सच कहा है आपने -अगर दोनों संप्रदायों के रिश्‍ते मृदु और हार्दिक होते गए तो साहित्‍य में वहीं प्रतिबिंब आएगा और खिंचते गए, दरारे बढ़ती गई तो भयानक, दर्दनाक दिनों का वर्णन आएगा। बस मैत्रेयी पुष्‍पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' के माध्‍यम से भविष्‍यकालीन साहित्‍य के परिदृश्‍य को आंकते हुए साहित्‍य और देश के भविष्‍य का शुभ चाहते हैं। हार्दिक आभार

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे ने कहा…

वैसे ऊपरी समीक्षा मैत्रेयी जी के किताब का मूल्यांकान करते हुए हिंदी साहित्य के भविष्य पर प्रकाश डालती और नारी जीवन के संघर्ष पर प्रकाश डालती है। नारियों को बैसाखियां त्यागनी है हर हाल में समाज चाहे भला कहे या बुरा। हिंदी साहित्य जगत् में कई महिला लेखिकाओं ने झंडे गाढे हैं, उनमें मैत्रेयी का भी समावेश होता है। सालों से वे बैसाखियों के साथ चल रही थी पर अंदर से नारी अस्मिता और सम्मान अपनी जगह पाने के लिए उकसा रहा था। और जब लिखना शुरू किया तो सारी बैसाखियां चुर-चुर हो गई। मैत्रैयी ने अपना संघर्ष खुद बयां किया है। मैं मैत्रेयी पुष्पा जी के किताब का प्रचारक तो नहीं पर आप महिलाएं 'गुडिया भीतर गुडिया' को पढती है तो जरूर ऊर्जा पा सकती है।
अब ज्यादा लिखे बिना आपसे क्षमा चाहता हूं आपके मंच पर बेवजह घुसपैठिया बन आया हूं। भाई समझ क्षमा की अपेक्षा रखता हूं। जाते-जाते शालिनी और शिखा जी के आभार।

कुमार राधारमण ने कहा…

कुछेक असहमतियों के बावजूद,कुल मिलाकर विश्लेषण अच्छा लगा।

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे ने कहा…

कुमार जी असहमतियां कौन-सी हैं अगर पता चले तो आपका दृष्टिकोण पता चलेगा अगर नारी जीवन को उठाने के लिए सार्थक सुधार है तो आप खुल कर बेझिझक लिख सकते हैं। जिसका मुझे आगे लिखते वक्त लाभ होगा।