शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

स्वीकारोक्ति एक पुरुष की

स्वीकारोक्ति एक पुरुष की
मेरे नाम से मुझे
जब पुकारती हैं एक लड़की
और तहाती हैं मेरे धुले हुए कपडे
झुन्झुलाता हुआ मैं
झिड़क देता हूँ अक्सर
और तब भी खामोश रहती हैं
बिना किसी उम्मीद के
प्यार में होती हैं न वोह !!!
और मैं उदास सा करवट बदलता हुआ
याद करता हूँ सिर्फ एक जिस्म
जिस्म जो दिन रात \ मेरे इर्द गिर्द
घूमता हैं एक निश्चित परिधि में
बिना अपना ख्याल किये!!!!
यह लडकियां कितनी कमजर्फ होती हैं
कमबख्त होती हैं
कितना भी दुत्कारो और फिर पुचकारो
सावन की झड़ी सी बरसती रहती हैं
बस एक पल के सानिध्य के लिय
माँ कहती थी !!!
लडकिया ख्याल भर नही होती
एक उम्र भर होती हैं
और इस एक उम्र में जी लेती हैं
आने वाली सात उमरो को
सिर्फ सात फेरो का खेल खेलकर
पैरो के तले पर गुदगुदी से
खिलकर हसने वाली लड़की
रो देती हैं जरा सी बात
अनसुनी करने पर
और अक्सर
लडकिया भूल जाती हैं
बड़ी बड़ी बाते
और सीने से लगा
छोटी छोटी बाते
घुलती रहती हैं / शक्कर सी
राइ का पहाड़ बना रोती हैं/ लिपट कर
पहाड़ जैसे मुसीबतों से
पार पा जाती हैं /अक्सर चुपचाप सी
दम्भी अहंकारी आजाद होने का नाटक करती
नही समझ पाती हैं इरादे
अपने वैध / पुरुष साथी के
और
अक्सर माँ सी पिघल जाती हैं
ओर
एक जायज माँ बन जाने को
क्या क्या नही कर जाती लडकिया
और बिस्तर पर पढ़ी सलवटो सी
सहम जाती हैं
फिर तड़पती हुयी
उम्र भर निभाती हैं
रिश्ता
रिसता हुआ भी
यह कमबख्त लडकिया …..नीलिमा शर्मा @

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

bahut sahi vishleshan kiya hai purush man ka neelima ji .

Macks ने कहा…

bahut khoob aur behtareen aur sachhi baat kahi aapne

Unknown ने कहा…

शुक्रिया शालिनी जी सुश्री मिस्श्रा जी