शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

कल्पना पुरुष मन की




अधिकार 

सार्वभौमिक सत्ता 
सर्वत्र प्रभुत्व 
सदा विजय 
सबके द्वारा अनुमोदन 
मेरी अधीनता 
सब हो मात्र मेरा 

कर्तव्य 

गुलामी 
दायित्व ही दायित्व 
झुका शीश 
हो मात्र तुम्हारा 
मेरे हर अधीन का 

बस यही कल्पना 

हर पुरुष मन की .

शालिनी कौशिक 

   

1 टिप्पणी:

Admin ने कहा…

ये पंक्तियाँ पढ़ते ही एक टीस सी उठी दिल में। कितनी सच्चाई और कड़वाहट भरी है इसमें। इस कविता ने तो जैसे समाज की परतें खोलकर सामने रख दीं। सबसे ज़्यादा चुभी वो पंक्ति “बस यही कल्पना, हर पुरुष मन की”... सच में, कितनी गहराई से कह दिया। ऐसी रचनाएँ हर स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई जाएँ, ताकि नई पीढ़ी सोच बदले। तुम्हारी लेखनी बहुत कुछ महसूस करा गई दोस्त, दिल से सलाम!