एक पुरुष को एक स्त्री हर रूप में स्वीकार ही होती हैं
या यू कह दो रिश्ते उसे भी मजबूर करते हैं सो ना
चाहते हुए भी बेटी, पत्नी के अनचाहे से रिश्तों को मंजूर करना ही पड़ता हैं :-)
औरत………………हाह इन्हें भला कहाँ किसी से समस्या होती हैं
और होती भी हैं तो सुनता भी कौन हैं इसलिए चुप्पी ही बेस्ट हैं
फिर भी औरतें रिश्तों को सहेजना व सम्भालना जानती हैं
वो इन्हें ख़ुशी-२ निभाती हैं बिना किसी गीले-शिकवे के
हर रिश्ता वो अपने में समेटना जानती हैं
पर एक बात मुझे बड़ा परेशान कर रही हैं
एक पुरुष अपनी पत्नी के हर रिश्ते को सहर्ष स्वीकार करता हैं
"पर उसे किसी पुरुष का अपनी पत्नी का दोस्त होना कभी स्वीकार नहीं होता हैं "
हो सकता हैं यह बात पूरी तरह से सही नहीं हो लेकिन यह बहुत हद तक सही हैं :-)
इसमें गलत क्या हैं ????
रिश्ते उस खुदा ने ही तो बनाये हैं फिर क्यों कुछ लोगों की सोच इन्हें बदनाम कर देती हैं ??
पुरुष क्यों नहीं समझ पाता हैं कि जैसे उसे दोस्ती के रिश्ते की जरुरत होती हैं
वैसी जरुरत स्त्री को भी होती होगी आखिर वो भी इंसान हैं :(
अगर पुरुष भाई, पति आदि रिश्तों में स्वीकार हैं तो दोस्त के रूप में क्यों नहीं ???
स्त्री और पुरुष के बिच में महज एक ही रिश्ता क्यों हो सकता हैं ???
कोई पुरुष मात्र उसका दोस्त तक क्यों नहीं हो सकता ????
जरुरत होती हैं कभी हमें भी अपने दर्द का सैलाब बहाने की
ढूंढते हैं दो कंधे पर नहीं मिल पाते हैं आंसू पोंछने वाले हाथ :(
यह इंसान कितना दोगला होता हैं ना
अगर कोई औरत इनकी दोस्त रहे तो इन्हें कोई आपति नहीं
अरे भई क्यों वो भी तो आखिर किसी की पत्नी हैं ????
अगर पैसे वाले गुनाह करें तो सब जायज और गरीबों पर क़यामत ढा दी जाती हैं
ठीक वैसे ही इन्हें स्त्री दोस्त रूप में स्वीकार पर अपनी पत्नी का कोई दोस्त स्वीकार नहीं :(
मैं तो बस इतना ही कहूँगी कि -
"नजर को बदल दो ,नज़ारे बदल जायेंगे !
सोच को बदल दो ,रिश्ते बदल जायेंगे !!"
मुझे जज्बातों को शब्द देना नहीं आया
पर जानती हू मैं आप लोग बहुत समझदार हैं
मेरी बातों को खुद-बेखुद समझ गए हैं :-)
या यू कह दो रिश्ते उसे भी मजबूर करते हैं सो ना
चाहते हुए भी बेटी, पत्नी के अनचाहे से रिश्तों को मंजूर करना ही पड़ता हैं :-)
औरत………………हाह इन्हें भला कहाँ किसी से समस्या होती हैं
और होती भी हैं तो सुनता भी कौन हैं इसलिए चुप्पी ही बेस्ट हैं
फिर भी औरतें रिश्तों को सहेजना व सम्भालना जानती हैं
वो इन्हें ख़ुशी-२ निभाती हैं बिना किसी गीले-शिकवे के
हर रिश्ता वो अपने में समेटना जानती हैं
पर एक बात मुझे बड़ा परेशान कर रही हैं
एक पुरुष अपनी पत्नी के हर रिश्ते को सहर्ष स्वीकार करता हैं
"पर उसे किसी पुरुष का अपनी पत्नी का दोस्त होना कभी स्वीकार नहीं होता हैं "
हो सकता हैं यह बात पूरी तरह से सही नहीं हो लेकिन यह बहुत हद तक सही हैं :-)
इसमें गलत क्या हैं ????
रिश्ते उस खुदा ने ही तो बनाये हैं फिर क्यों कुछ लोगों की सोच इन्हें बदनाम कर देती हैं ??
पुरुष क्यों नहीं समझ पाता हैं कि जैसे उसे दोस्ती के रिश्ते की जरुरत होती हैं
वैसी जरुरत स्त्री को भी होती होगी आखिर वो भी इंसान हैं :(
अगर पुरुष भाई, पति आदि रिश्तों में स्वीकार हैं तो दोस्त के रूप में क्यों नहीं ???
स्त्री और पुरुष के बिच में महज एक ही रिश्ता क्यों हो सकता हैं ???
कोई पुरुष मात्र उसका दोस्त तक क्यों नहीं हो सकता ????
जरुरत होती हैं कभी हमें भी अपने दर्द का सैलाब बहाने की
ढूंढते हैं दो कंधे पर नहीं मिल पाते हैं आंसू पोंछने वाले हाथ :(
यह इंसान कितना दोगला होता हैं ना
अगर कोई औरत इनकी दोस्त रहे तो इन्हें कोई आपति नहीं
अरे भई क्यों वो भी तो आखिर किसी की पत्नी हैं ????
अगर पैसे वाले गुनाह करें तो सब जायज और गरीबों पर क़यामत ढा दी जाती हैं
ठीक वैसे ही इन्हें स्त्री दोस्त रूप में स्वीकार पर अपनी पत्नी का कोई दोस्त स्वीकार नहीं :(
मैं तो बस इतना ही कहूँगी कि -
"नजर को बदल दो ,नज़ारे बदल जायेंगे !
सोच को बदल दो ,रिश्ते बदल जायेंगे !!"
मुझे जज्बातों को शब्द देना नहीं आया
पर जानती हू मैं आप लोग बहुत समझदार हैं
मेरी बातों को खुद-बेखुद समझ गए हैं :-)
3 टिप्पणियां:
sarika ji jaise purush stri ke dost ke roop me kisi purush ko sahan nahi kar sakt aise hi stri bhi purush ke dost roop me any stri ko sahan nahi karti hai bas uski sthiti purush se kamjor hai .nice post .
shukriya mam.....:-)
मानसिकता बदलनी होगी ...
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