न कुछ कहने की इज़ाज़त ,
न कुछ बनने की इज़ाज़त ,
न साँस लेने की इज़ाज़त ,
न आगे बढ़ने की इज़ाज़त .
न आपसे दो बात मन की बढ़के कह सकूं ,
न माफिक अपने फैसला खुद कोई ले सकूं ,
जो आपको लगे सही बस वो ही मैं करूँ ,
न उसको किसी हाल में मैं नहीं कह सकूं .
अपनी ही बात को रखा सबसे सदा ऊपर ,
हालत का मेरी दोष मढ़ा मेरे ही सिर पर ,
माना न कहा मेरा ,औरों से दबाया ,
फिर उनकी बात रखकर मारी मुझे ठोकर .
बनते हैं वक्त के हमकदम ज़माने के लिए ,
दूसरों की असलियत पे होंठ सी लिए ,
देना था जहाँ साथ मेरा भविष्य के लिए ,
पैरों में मेरे बेड़ियाँ डाल खड़े हो लिए .
बेटी को माना बोझ तो फिर जन्म क्यूं दिया ,
बेटी का भविष्य यहाँ चौपट क्यूं कर दिया ,
न देना था उसको अगर सुनहरा भविष्य ,
पैदा हुए ही गला क्यूं दबा नहीं दिया .
बेटी तो पौध है खुले आँगन में ही चले ,
सांसे उसे बढ़ने को उस हवा में ही मिलें ,
रखोगे बंद कमरे में दुनिया से छिपाकर ,
घुट जाएगी वैसे ही जैसे पौध न खिले .
शालिनी कौशिक
[WOMAN ABOUT MAN]
2 टिप्पणियां:
bilkul sahi kaha hai aapne .badhai
marmik aur samyik abhivyakti
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