बुधवार, 18 दिसंबर 2013

अब आ पड़ी मियां की जूती मियां के सर .

Muslim bride and groom at the mosque during a wedding ceremony - stock photo
फिरते थे आरज़ू में कभी तेरी दर-बदर ,
अब आ पड़ी मियां की जूती मियां के सर .
.............................................................
लगती थी तुम गुलाब हमको यूँ दरअसल ,
करते ही निकाह तुमसे काँटों से भरा घर .
........................................................
पहले हमारे फाके निभाने के थे वादे ,
अब मेरी जान खाकर तुम पेट रही भर .
...............................................................
कहती थी मेरे अपनों को अपना तुम समझोगी ,
अब उनको मार ताने घर से किया बेघर .
.................................................................
पहले तो सिर को ढककर पैर बड़ों के छूती ,
अब फिरती हो मुंह खोले न रहा कोई डर .
...............................................................
माँ देती है औलाद को तहज़ीब की दौलत ,
मक्कारी से तुमने ही उनको किया है तर .
...................................................................
औरत के बिना सूना घर कहते तो सभी हैं ,
औरत ने ही बिगाड़े दुनिया में कितने नर .
..........................................................
माँ-पिता,बहन-भाई हिल-मिल के साथ रहते ,
आये जो बाहरवाली होती खटर-पटर .
................................................................
जीना है जो ख़ुशी से अच्छा अकेले रहना ,
''शालिनी ''चाहे मर्दों के यूँ न कटें पर .
.............
शालिनी कौशिक

2 टिप्‍पणियां:

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना

दिगम्बर नासवा ने कहा…

माँ देती है औलाद को तहज़ीब की दौलत ,
मक्कारी से तुमने ही उनको किया है तर ...

सार्थक शेर हैं सभी ... अलग अंदाज़ के ,, कुछ कुछ कहते हुए ...